Sunday, 27 June 2021

"नारीवादी निगाह से" गंभीर मुद्दे हैं निवेदिता मेनन की इस पुस्तक में

 14th June 2021 at 3:33 PM

 बहुत सी समस्याओं को उठाती है निवेदिता मेनन की यह पुस्तक 


नई दिल्ली//लुधियाना//:27 जून 2021: (साहित्य स्क्रीन डेस्क):: 

विवाह होता है तो इस को बहुत ही शगुन भरा घटनाक्रम माना जाता है। लेकिन इसे कभी भी नारीवादी नज़रिये से देखा ही नहीं गया। एक लड़की को उसके घर परिवार से अलग कर के कोई बेगाना घर अपनाने की रस्म है विवाह जिसमें लड़की को लाने वाले ढोल बजाते हैं जैसे अपना जय घोष कर रहे हों। यहीं से शुरू हो जाती है नारी की क़ुरबानी। कई बार तो उसका नाम भी बदल दिया जाता है। लड़की के साथ साथ खुले या छुपे रूप में दहेज की मांग भी की जाती है। पितृसत्ता के दौर में इस सारे घटनाक्रम को नाम दिया जाता है कि लड़की का घर बसा दिया। नारी के जीवन में, उसकी मानसिकता में कितनी उलझनें पैदा होती हैं यह वही जानती है। समाज तो बस दूर से तमाशा ही देखता है। आम तौर पर इस सारे दर्द को नज़र अंदाज़ भी कर दिया जाता है। निवेदिता मेनन ने "सीइंग लाईक ए फेमिनिस्ट" अंग्रेजी में इन्हीं बहुत से सवालों को ले कर लिखी थी। अंग्रेजी की अपनी पहुँच है लेकिन बहुत से लोग हैं जो हिंदी को पसंद करते हैं। अच्छा हो इसका पंजाबी अनुवाद भी प्रकाशित हो। हिंदी में जह छपा है "नारीवादी निगाह से" और बहुत तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा है।  

इस किताब की बुनियादी दलील नारीवाद को पितृसत्ता पर अन्तिम विजय का जयघोष सिद्ध नहीं करती। इसके बजाय वह समाज के एक क्रमिक लेकिन निर्णायक रूपान्तरण पर ज़ोर देती है ताकि प्रदत्त अस्मिता के पुरातन चिह्नों की प्रासंगिकता हमेशा के लिए ख़त्म हो जाए। नारीवादी निगाह से देखने का आशय है मुख्यधारा तथा नारीवाद, दोनों की पेचीदगियों को लक्षित करना। यहाँ जैविक शरीर की निर्मिति, जाति-आधारित राजनीति द्वारा मुख्यधारा के नारीवाद की आलोचना, समान नागरिक संहिता, यौनिकता और यौनेच्छा, घरेलू श्रम के नारीवादीकरण तथा पितृसत्ता की छाया में पुरुषत्व के निर्माण जैसे मुद्दों की पड़ताल की गई है। एक तरह से यह किताब भारत की नारीवादी राजनीति में लम्बे समय से चली आ रही इस समझ को दोबारा केन्द्र में लाने का जतन करती है कि नारीवाद का सरोकार केवल ‘महिलाओं’ से नहीं है। इसके उलट, यह किताब बताती है कि नारीवादी राजनीति में कई प्रकार की सत्ता-संरचनाएँ सक्रिय हैं जो इस राजनीति का मुहावरा एक दूसरे से अलग-अलग बिन्दुओं पर अन्तःक्रिया करते हुए गढ़ती हैं।

पेपरबैक संस्करण 240 पेज का है और कीमत है 275/- रुपए।  जिल्द का डीलक्स एडिशन है 299/-रुपए का।इसका हिंदी अनुवाद बहुत सुंदर है और इस ज़िम्मेदारी को निभाया है नरेश गोस्वामी ने। 

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