Sunday, 23 February 2025

आखिरी सांस तक साहित्य साधना से जुड़े रहे जनाब कृष्णबिहारी ’नूर’

 First Published on Tuesday 27th May 2023 at 5:45 PM Updated By Krishan Kumar Naaz on 14th February 2025 

जनाब कृष्ण कुमार नाज़ साहिब ने बताई नूर साहिब की ज़िन्दगी से जुड़ी बहुत सी नई बातें 

उनकी शायरी ज़िंदगी की कठिनइयों से हमेशां रूबरू रही 


साहित्य की दुनिया से21 फरवरी 2025: (मीडिया लिंक डेस्क//साहित्य स्क्रीन)::

यह एक हकीकत है कि लेखकों की दुनिया अलग सी होती है और उसके पात्र भी अलग से होते हैं। आम दुनिया और उनका परिवार भी आम तौर पर इसे कभी पूरी तरह नहीं समझ पाता। शायर या लेखक भगवान की तरह एक कहानी नहीं एक दुनिया भी रच डालते हैं।  लेखकों की रचनाओं को पढ़ते हुए हमें लगता है कि हम किसी और दुनिया की कोई ऐसी कहानी पढ़ रहे हैं जो हमारे आसपास भी महसूस होती है। इसी तरह शायरों के शेर भी अलग अलग कहानी से जुड़े होते हैं। यह कहानियां दिलचस्प ही होती हैं और दर्द भरी भी। काल्पनिक भी और सच्ची भी। कुछ ऐसी ही कहानी इस पोस्ट के संबंध में भी है। आज सुनाते हैं आपको इसी पोस्ट का एक संक्षिप्त सा किस्सा। जो आपको संपादकीय ज़िम्मेदारियों की एक छोटी सी झलक भी दिखाएगा। 

यह कहानी सन 2023 के अप्रैल महीने में हमारे पास पहुंची थी। संपादकीय स्टाफ के सभी सदस्य जनाब कृष्ण बिहारी नूर साहिब की शायरी के फैन थे। इसलिए उन के संबंध में जानना और लिखना सभी की इच्छा भी थी।  संपादकीय डेस्क के सबंधित स्टाफ के पास कुछ और लोगों ने भी जनाब कृष्ण बिहारी नूर के संबंध में लिखा। मैगज़ीन सैक्शन ने इन सभी को मिला कर एक स्टोरी बना दिया क्यूंकि बहुत से लोगों ने काफी कुछ रिपीट भी कर रखा था। आखिरकार इस सारे झमेले में पोस्ट प्रकाशित भी हो गई। 

जब इसे पोस्ट किए कई महीने बीत गए तो संपादकीय स्टाफ की बात इत्तफाकन मोरादाबाद के रहने वाले जानेमाने शायर कृष्णा कुमार नाज़ साहिब से हुई। विषय तो कोई और था लेकिन चलते चलते बात जनाब कृष्ण बिहारी नाज़ साहिब और उनकी शायरी पर आ गई। उनकी ज़िंदगी, शायरी और आखिरी दिनों पर चर्चा करते हुए नाज़ साहिब ने नूरसाहिब के संबंध में बहुत सी नै और ख़ास बातें बतायीं। संपादकीय डेस्क को यह बातें महत्वपूर्ण लगीं। संपादकीय स्टाफ के विशेष अनुरोध पर नाज़ साहिब ने नूर साहिब पर कुछ विशेष लिख कर भी भेजा। 

जनाब कृष्ण कुमार नाज़ साहिब इस चर्चा के दौरान जनाब कृष्ण बिहारी नूर साहिब की यादों को ताज़ा करते हुए बताते हैं कि जब आखिरी वक्त की घडियां नज़दीक आने को हुईं तो वह उस समय भी शायरी के इश्क में थे। मई, 2003 में नूर साहब एक मुशायरे में शामिल होने के लिए लखनऊ से गाजियाबाद जा रहे थे। जोश और उत्साह हमेशां उनके जीवन में बहुत गहरे मित्र की तरह साथ रहा। उस दिन भी उनके तन मन का माहौल भी कुछ ऐसा ही था। गंभीरता और जोश बहुत खूबसूरत स्वभाव था।

लखनऊ से गाज़ियाबाद तक के उस ट्रेन वाले सफ़र के लिए उन्हें उस दिन भी ऊपर वाली सीट ही मिली थी। ऊपर की सीट का एक फायदा रहता है कि नीचे वाला कोलाहल दिमाग और शायरी के लिए आवश्यक एकाग्रता को कभी भंग नहीं करता। हालांकि उतरने और चढने में होने वाले कष्ट के कारण ज़्यादातर लोग ऊपर की सीट को पसंद भी नहीं करते। वृद्ध उम्र में तो और भी ध्यान रखना पड़ता है। लेकिन नूर साहिब को एकाग्रता के कारण ऊपर वाली सीट पसंद भी थी। हमेशा इसे प्राथमिकता दिया करते। उस दिन तो यह सब बहाना ही बन गया।

आखिरी सफ़र बनने वाली उस ट्रेन में ऊपर की सीट से नीचे उतरते समय गिर जाने से उनके पेट में चोट आ गई। लेकिन उन्होंने चोट की परवाह न करते हुए अगले दिन मुशायरे में भी शिरकत की। पहले की तरह बातें भी की। किसी को भी अनहोनी का अंदेशा तक नहीं था। 

उन्हें रूटीन में देख कर उस दिन तो बात आई गई हो गई लेकिन अगले दिन उन्हें यशोदा अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उनकी आंत का आपरेशन हुआ। कुछ दिन वहां भर्ती रहने के बाद 30 मई को नूर साहब सभी को छोड़कर अनंत यात्रा पर चले गए। उनका अंतिम संस्कार भी गाजियाबाद में ही किया गया। 

उनकी देह तो चली गई, लेकिन उनकी शायरी ने एक नया सफ़र शुरू किया। यह शायरी तेज़ी से लोगों के दिलों तक पहुंचने लगी। ज़िंदगी की मुश्किलों का बेबाकी से बखान करती शायरी आज भी लोगों की जुबां पर है। यह सब उनकी साहित्य साधना का ही परिणाम है। इसी साधना में छिपे हैं उनके ख़ास गुण भी। 
 
उल्लेखनीय है कि ज़मीन से जुड़े हुए जाने माने शायर जनाब कृष्णबिहारी नूर की साहित्य साधना भी कमाल की रही। बिना किसी का अहसान लिए, बिना किसे से गुजारिशें किए, बिना किसी के आगे सिर झुकाए ज़िंदगी के रंगों को देखते रहे जनाब  नूर साहिब। सिर्फ देखते ही नहीं रहे बल्कि उन अनुभूतियों को दिल और दिमाग में भी सहेजते रहे। योग साधना और तंत्र साधना में साधक बहुत  क्रियाओं और बेहद कठिन आसनों के अभ्यास से सहजता की स्थिति को उपलब्ध होते हैं। इस  सहज अवस्था में पहुँचने के बाद वे अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति भी देते हैं। ये अनुभूतियाँ शरीर और दुनिया में रहते हुए भी इनसे अलग होने का अहसास भी करवाती हैं। 

जब वह कहते हैं: 
ज़िंदगी अब बता किधर जाएं?
ज़हर बाजार में मिला ही नहीं!

हो सकता है ज़िंदगी के आनंद, सुख सुविधा, अमीरी और विकास के दावे करने वाले अपनी जगह सही हों, लेकिन नूर साहिब तो ज़िंदगी में दुख, दर्द और गम का विष पी रहे हैं। नूर साहिब उस ज़िंदगी की बात करते हुए कहते अपने शायराना अंदाज़ में कहते हैं:

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं! 
और क्या जुर्म है, पता ही नहीं

तो आजकल के दौर की ज़िंदगी की सभी मुश्किलों की  तरफ बहुत ही सलीके से इशारा कर जाते हैं। जीना भी कठिन है और मरना भी मुश्किल--कितनी गहन मजबूरी है! उनकी शायरी पढ़ते जा सुनते हुए इस बात का अहसास बहुत बार होता है। 

उनका इस दुनिया में जन्म 29 अगस्त 1954 को पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले की बांसगाँव तहसील (अब खजनी) अन्तर्गत ग्राम कुण्डाभरथ में  हुआ। लगता है इस जन्म से पहले वह निश्चित ही किसी और दुनिया में भी रहे होंगे। उनकी शायरी पढ़ते हुए अहसास होता है कि उनकी शिक्षा की औपचारिकता भी पूरी शिद्दत से हुई। 

कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम. ए. किया। सन 1968-69 से लेखन की शुरुआत हुई। पहली कहानी सन 1971में प्रकाशित हुई और उनका नाम कहानीकारों में भी उभर कर सामने आया। तबसे सैकड़ों रचनाएँ हिन्दुस्तान के प्रमुख समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। यूट्यूब पर उनके मुशायरे भी मिल जाएंगे। अनेक प्रकार की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं के सदस्य और इमारात में हिन्दी के विकास में संलग्न रहे। संप्रति संयुक्त अरब इमारात के अबूधाबी नगर में अध्यापन के व्यवसाय में हैं। उनकी रचनाएं आज भी बहुत से लोगों के दिलों में हैं। उनकी शायरी सीधा दिल में उतरती है। इसके साथ ही ज़िंदगी के रूबरू भी करवाती है। 

उनकी प्रकशित कृतियों में कुछ नाम आज भी विशेष हैं:

कहानी संग्रहों में हैं : दो औरतें, पूरी हक़ीकत पूरा फ़साना, नातूर।

एकांकी नाटक में हैं: यह बहस जारी रहेगी, एक दिन ऐसा होगा, गांधी के देश में

नाटक की दुनिया में हैसंगठन के टुकड़े

कविता संग्रह में: मेरे मुक्तक : मेरे गीत, मेरे गीत तुम्हारे हैं, मेरी लम्बी कविताएँ,

उपन्यास: रेखा उर्फ नौलखिया, पथराई आँखों वाला यात्री, पारदर्शियाँ।

यात्रा वृतांत: सागर के इस पार से उस पार से।

गौरतलब है कि "दो औरतें" कहानी का नेशनल स्कूल ऑफ ड्रॉमा दिल्ली द्वारा श्री देवेंन्द्र राज अंकुर के निर्देशन में सन 1996 में जो मंचन हुआ वह बेहद लोकप्रिय हुआ। अखबार और रेडियो की दुनिया से संबद्ध रहने के बाद सत्रह वर्षों से भी अधिक समय तक अध्यापन से भी जुड़े रहे। इसे इस रूप में भी बेहद पसंद किया गया। 

कृष्ण बिहारी नूर साहिब की बहुत सी शायरी विभिन्न वेबसाईट पर भी देखी जा सकती है। उनके लिए अलग से भी एक समर्पित वेबसाईट बनाने के प्रयास चले थे लेकिन इनके बारे में ज़्यादा पता नहीं चल सका। आखिर में एक बात और कि वह आखिरी सांस तक शायरी और मुशायरे के लिए समर्पित रहे। ऐसे ही हुआ करते हैं कलम के सिपाही। 

इसी संबंध में आप पुरानी पोस्ट पढ़ सकते हैं बस यहाँ क्लिक करके

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Sunday, 16 February 2025

पुलवामा के शहीद//कृष्णा गोयल

Saturday 15th February 2025 Remembering Pulwama Attack Sahitya Screen साहित्य स्क्रीन

देश हित कुर्बानी के लिए एक नया इतिहास रचा पुलवामा के शहीदों ने 


मोहाली
: 14 फरवरी 2025: (कृष्णा गोयल//AI Gemini// मीडिया लिंक डेस्क//साहित्य स्क्रीन)::

दिल हिला देने वाली यह एक सच्ची कहानी है जिसकी याद आते ही रौंगटे खड़े हो जाते हैं। इसकी चर्चा करने पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस बताती है कि जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में 14 फरवरी 2019 को एक आतंकी हमला हुआ था, जिसमें भारत के 40 जवान शहीद हो गए थे। यह हमला दोपहर के लगभग 3 बजे हुआ था।


क्या था पूरा मामला? जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में 14 फरवरी 2019 को एक आत्मघाती हमलावर ने सीआरपीएफ के काफिले को निशाना बनाया था। इस हमले में 40 जवान शहीद हो गए थे। यह हमला उस समय हुआ था, जब सीआरपीएफ का काफिला जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग से गुजर रहा था। काफिले में 78 वाहन थे और उनमें लगभग 2,500 जवान सवार थे। हमलावर ने विस्फोटकों से भरी एक कार को काफिले के एक वाहन से टकरा दिया था, जिससे विस्फोट हुआ और 40 जवान शहीद हो गए। इस हमले की जिम्मेदारी जैश-ए-मोहम्मद नामक एक आतंकी संगठन ने ली थी। 

भारत का एक्शन: इस हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी प्रशिक्षण शिविरों पर हवाई हमले किए थे। भारत सरकार ने इस हमले को 'सर्जिकल स्ट्राइक 2' का नाम दिया था। इस हमले में कई आतंकियों के मारे जाने की खबर थी।

एक बार फिर 14 फरवरी 

पुलवामा के शहीदों की याद आते ही उनके परिजनों की भी  याद आती है... उनकी मां, उनके पिता,उनकी संतान, उनकी पत्नी, --क्या बीती होगी उन सभी पर...! इस असहनीय दुःख की कल्पना ही संवेनदशील लोगों को भावुक कर देती है। दुःख और गम की इसी लहर के चलते शायरा ने एक काव्य रचना प्रेषित की है जिसे हम साहित्य स्क्रीन पढ़ने वाले पाठकों के लिए यहां  प्रकाशित कर रहे हैं। 

Courtesy>Sunil Shah Profile

लीजिए पढ़िए कृष्णा गोयल की काव्य रचना पुलवामा 

तुम्हारे चिथड़े चिथड़े देख कर

रो पड़ा देश सारा,

केसे बताया तुम्हारी मां को

जिसका तू लाडला

आंख का तारा!

केसे ढाढस बंधाया तेरे पिता को

जिसका तू बुढ़ापे का सहारा!


कैसे बताया तेरे भाई को

जिसका तू दायां हाथ था,

जिसकी हर गुरबत में

तेरा साथ था!


तुम्हारी प्यारी विवाहिता

तुम्हारी आरती उतारती थी,

तुम्हारी फोटो ले ले कर

अपने चाव उतारती थी।

दिल चाहे उसके आंसू पी जाएं

पर कैसे उसको धीर बंधाए?

जो शांत कर दें उसको,

वो शब्द कहां से लाएं?


उस नन्ही जान का

 दुख केसे बांटेंगे?

जो तोतली जुबान में बोलती है

पापा मेरी doll लेकर लौटेंगे।

 

जिस बहन को तुमने

डोली में था बिठाना,

बार बार बेहोश होकर गिरती है

उसके सदमे का क्या ठिकाना!


फरवरी का जब ये सप्ताह आता है,

दिल घबराता है,

लाडले वीरों के याद करके

कलेजा मुंह को आता है।


आज सब का मन डोलता है,

खून सब का खौलता है,

कोई वंदे मातरम

कोई जय जवान बोलता है।


कुछ सोच कुछ तदबीर बनाएं,

मिलजुल कर कसमें खाएं,

इस से पहले कि कोई आंख उठाए

फोड़ दें वह आंखें

अलख मुकाएं।

 

एक नहीं  40 घरों में

अंधेरा छा गया,

आज वही 14 फरवरी

का दिन आ गया!


कसम है तेरे चिथड़ों की

उनको न भुलायेंगे

अब और नही, अब और नही

दुश्मन को और सह नहीं पाएंगे

बच्चे बच्चे में स्वाभिमान जगाएंगे

जो देखेगा बुरी नजर से

फोड़ देंगे वो आंख

सिर धड़ से उड़ाएंगे!


भारत मां के लाडलो!

हर दिल पे खुदा तुम्हारा नाम है,

शत शत प्रणाम तुम्हे

शत शत प्रणाम है।

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कृष्णा गोयल

पूर्व ज्वाइंट रजिस्ट्रार AFT

14 फरवरी 2025

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Thursday, 8 February 2024

आखिरी सांस तक साहित्य साधना से जुड़े रहे जनाब कृष्ण बिहारी नूर

Tuesday 27th May 2023 at 5:45 PM

उनकी शायरी ज़िंदगी की कठिनइयों से हमेशां रूबरू रही 


साहित्य की दुनिया से
: 30 मई 2023: (मीडिया लिंक डेस्क//साहित्य स्क्रीन)::

जब आखिरी वक्त की घडियां नज़दीक आने को हुईं तो वह उस समय भी शायरी के इश्क में थे। मई, 2003 में नूर साहब एक मुशायरे में शामिल होने के लिए लखनऊ से गाजियाबाद जा रहे थे। जोश और उत्साह हमेशां उनके जीवन में बहुत गहरे मित्र की तरह साथ रहा। उस दिन भी उनके तन मन का माहौल भी कुछ ऐसा ही था। गंभीरता और जोश बहुत खूबसूरत स्वभाव था। 

सफ़र के लिए उन्हें उस दिन भी ऊपर वाली सीट ही मिली थी। ऊपर की सीट का एक फायदा रहता है कि नीचे वाला कोलाहल दिमाग और शायरी के लिए आवश्यक एकाग्नरता को कभी भंग नहीं करता। हालांकि उतरने और चढने में होने वाले कष्ट के कारण ज़्यादातर लोग ऊपर की सीट को पसंद भी नहीं करते। वृद्ध उम्र में तो और भी ध्यान रखना पड़ता है। लेकिन नूर साहिब को एकाग्रता के कारण ऊपर वाली सीट पसंद भी थी। हमेशा इसे प्राथमिकता दिया करते। उस दिन तो यह सब बहाना ही बन गया। 

आखिरी सफ़र बनने वाली उस ट्रेन में ऊपर की सीट से नीचे उतरते समय गिर जाने से उनके पेट में चोट आ गई। लेकिन उन्होंने चोट की परवाह न करते हुए अगले दिन मुशायरे में भी शिरकत की। पहले की तरह बातें भी की। किसी को भी अनहोनी का अंदेशा तक नहीं था। 

उन्हें रूटीन में देख कर उस दिन तो बात आई गई हो गई लेकिन मुशायरे के अगले दिन 30 मई को नूर साहब सभी को छोड़कर अनंत यात्रा पर चले गए। उनका अंतिम संस्कार भी गाजियाबाद में ही किया गया। उनका जाना देह का नत तो था लेकिन उनकी शायरी ने एक नया सफ़र शुरू किया। यह शायरी तेज़ी से लोगों के दिलों तक पहुंचने लगी। ज़िंदगी की मुश्किलों का बेबाकी से बखान करती शायरी आज भी लोगों की जुबां पर है। यह सब उनकी साहित्य साधना का ही परिणाम है। इसी साधना में छिपे हैं उनके ख़ास गुण भी।  

उल्लेखनीय है कि ज़मीन से जुड़े हुए जानेमाने शायर जनाब कृष्णबिहारी नूर की साहित्य साधना भी कमाल की रही। बिना किसी का अहसान लिए, बिना किसे से गुजारिशें किए, बिना किसी के आगे सिर झुकाए इन्दगी के रंगों को देखते रहे जनाब  नूर साहिब। सिर्फ देखते  उन अनुभूतियों की दिल और दिमाग में सहेजते रहे। योग साधना और तंत्र साधना में साधक बहुत  क्रियाओं और बेहद कठिन आसनों के अभ्यास से सहजता की स्थिति को उपलब्ध होते हैं। इस  सहज अवस्था में पहुँचने के बाद वे अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति भी देते हैं। यह अनुभूतियाँ शरीर और दुनिया में रहते हुए भी इनसे अलग होने का अहसास भी करवाती हैं। 

जब वह कहते हैं: 

ज़िंदगी अब बता किधर जाएं? ज़हर बाजार में मिला नहीं!

हो सकता है ज़िंदगी के आनंद, सुख सुवधा, अमीरी और विकास के दावे करने वाले अपनी जगह सही हों शायद लेकिन नूर साहिब तो ुकि बात करते हैं जो बहु संख्या में हैं और ज़िंदगी में दुःख, सर्द और गम का विष पी रहे हैं। नूर साहिब उस ज़िंदगी बात करते हुए कहते हैं:

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं! और क्या जुर्म है, पता ही 

तो आजकल के दौर की ज़िंदगी की सभी मुश्किलों की  तरफ बहुत ही सलीके से इशारा कर जाते हैं। जीना भी कठिन है और मरना भी  गया--कितनी गहन मजबूरी है! उनकी शायरी पढ़ते जा सुनते हुए इस बात का अहसास बहुत बार होता है। 

उनका इस दुनिया में जन्म 29 अगस्त 1954 को पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले की बांसगाँव तहसील (अब खजनी) अन्तर्गत ग्राम कुण्डाभरथ में  हुआ। लगता है इस जन्म से पहले वह निश्चित ही किसी और दुनिया में भी रहे होंगे। उनकी शैरी पढ़ते हुए अहसास होता है कि उनकी शिक्षा की औपचारिकता भी पूरी शिद्दत से। कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम. ए. किया। सन 1968-69 से लेखन की शुरुआत हुई। पहली कहानी सन 1071में प्रकाशित हुई और उनका नाम कहानीकारों में भी उभर कर सामने आया। तबसे सैकड़ों रचनाएँ हिन्दुस्तान के प्रमुख समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशितहोती रहीं। यूट्यूब पर उनके मुशायरे भी मिल जाएंगे। अनेक प्रकार की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं के सदस्य और इमारात में हिन्दी के विकास में संलग्न रहे। संप्रति संयुक्त अरब इमारात के अबूधाबी नगर में अध्यापन के व्यवसाय में हैं। उनकी रचनाएं आज भी बहुत से लोगों के दिलों में हैं। उनकी शायरी सीधा दिल में उतरती है। इसके साथ ही ज़िंदगी के रूबरू भी करवाती है। 

उनकी प्रकशित कृतियों में कुछ नाम आज भी विशेष हैं:

कहानी संग्रहों में हैं : दो औरतें, पूरी हक़ीकत पूरा फ़साना, नातूर।

एकांकी नाटक में हैं: यह बहस जारी रहेगी, एक दिन ऐसा होगा, गांधी के देश में

नाटक की दुनिया में है: संगठन के टुकड़े

कविता संग्रह में: मेरे मुक्तक : मेरे गीत, मेरे गीत तुम्हारे हैं, मेरी लम्बी कविताएँ,

उपन्यास: रेखा उर्फ नौलखिया, पथराई आँखों वाला यात्री, पारदर्शियाँ।

यात्रा वृतांत: सागर के इस पार से उस पार से।

गौरतलब है कि "दो औरतें" कहानी का नेशनल स्कूल ऑफ ड्रॉमा दिल्ली द्वारा श्री देवेंन्द्र राज अंकुर के निर्देशन में सन 1996 में जो मंचन हुआ वह बेहद लोकप्रिय हुआ। अखबार और रेडियो की दुनिया से संबद्ध रहने के बाद सत्रह वर्षों से भी अधिक समय तक अध्यापन से भी जुड़े रहे। इसे इस रूप में भी बेहद पसंद किया गया। 

कृष्ण बिहारी नूर साहिब के बहुत सी शायरी विभिन्न वेबसाईट पर भी देखी जा सकती है। उनके लिए अलग से भी एक समर्पित वेवसाईट बनाने के प्रयास चले थे लेकिन इनके बारे में ज़्यादा पता नहीं चल सका। आखिर में एक बात और कि वह आखिरी सांस तक शायरी और मुशायरे के लिए समर्पित रहे। ऐसे ही हुआ करते हैं कलम के सिपाही। 

नूर साहिब पर यह पुरानी पोस्ट है नई पोस्ट आप पढ़ सकते हैं हैं बस यहाँ क्लिक करके 


निरंतर सामाजिक चेतना और जनहित ब्लॉग मीडिया में योगदान दें। हर दिन, हर हफ्ते, हर महीने या कभी-कभी इस शुभ कार्य के लिए आप जो भी राशि खर्च कर सकते हैं, उसे अवश्य ही खर्च करना चाहिए। आप इसे नीचे दिए गए बटन पर क्लिक करके आसानी से कर सकते हैं

Thursday, 8 June 2023

प्रेम पर सुमिता कुमारी की एक गहरी रचना //प्रेम//सुमिता

प्रेम की अंतरंगता से परिचित करवाती सुमिता कुमारी की काव्य रचना 


मोहाली: 7 जून 2023: (कार्तिका सिंह//साहित्य स्क्रीन डेस्क)::

आज के युग में प्रेम के नाम पर जो जो कुछ हो रहा है उसे देखते हुए लज्जा सी महसूस होने  लगती है। ऐसे माहौल में ऐसे सात्विक प्रेम की बात करना जिसमें देह और अंतरात्मा के रिश्तों का भान होने लगे तो एक चमत्कार सा लगता है लेकिन सुमिता जी की कविता "प्रेम" में आपको यह सब महसूस होगा। <यह कविता आपको उस लोक में ले जाएगी जिसे सच्चे प्रेम का लोक कहा जा सकेगा। इस तरह के चमत्कार ही शायद इस समाज और दुनिया को बचा सकें। भगवन तक पहुँचाने की क्षमता रखने वाला प्रेम आजकल कितना बौना हो कर रह गया है! कयूं अलौकिक से हो गए हैं सच्चे प्रेम के किस्से? मैडम सुमिता जी पर एक पोस्ट आप हिंदी स्क्रीन में भी यहां क्लिक कर के पढ़ सकते हैं। 

 प्रेम//सुमिता


आसान नहीं था  

उसे जिंदगी में वापस खींच लाना

सब कुछ देकर ही तो उसने यह जिंदगी चुनी थी

वह हंसता-गाता और रोता भी था

लेकिन खुद को समभाव ही दिखाया सबको

मानवीय भावनाएं उसे साबित कर सकती थी सांसारिक

उसने कभी वादा किया था 

कि उसे सौंप देगा अपने जीवन का बसन्त

और पतझड़ में बिखरते हुए भी

उसने किसी सावन में भीगना नहीं चुना

उसे जिंदगी से मोह बस इतना था 

कि जिंदगी किसी की अमानत है

और देह से अपनापन इतना ही 

कि देह ने बसा रखी है किसी और की आत्मा

जिसका त्याग उसकी हत्या के बराबर है

उसे देखकर महसूस होता 

कि विरक्त-सा यह आदमी

लड़ रहा है युद्ध 

स्वयं के विरुद्ध

अपनी काया में जी रहा है अनागत अस्तित्व

जो कभी उसके जीवन का हिस्सा न बन सका


वह आंखें कितनी अनमोल होंगी 

उसकी बातें कितनी मर्मस्पर्शी

जिसमें डूबकर 

कोई सारी उम्र पार नहीं उतरना चाहता

भूल जाना चाहता है दुनियां

लेकिन उसे नहीं भूलना चाहता

उसके जाते

दुनियां में प्रेम करने लायक कुछ नहीं रहा


यह किसका भाग्य है किसका दुर्भाग्य

कितना उचित है कितना अनुचित

बहस का मुद्दा हो सकता है

मगर आधुनिकता के दौर में 

ऐसी आत्माओं ने ही बचा रखी है

प्रेम की आत्मा...

सुमिता (27-01-23)

आपको यह पोस्ट कैसी लगी अवश्य बताएं। आपके विचारों की इंतज़ार बनी रहेगी। 

                                                                                 प्रस्तुति:कार्तिका कल्याणी सिंह (हिंदी स्क्रीन डेस्क)

Friday, 12 August 2022

राहत इंदौरी साहिब की याद में खास प्रोग्राम 13 अगस्त को

इंदौर में होना है जश्न ए दास्तान नाम का यादगारी मुशायरा 


इंदौर
: 12 अगस्त 2022: (साहित्य स्क्रीन ब्यूरो)::

राहत इन्दौरी साहिब एक युग कवि थे। आम जनता के दिलों की बात बेहद सादगी से करने वाले महान शायर थे। शायरी के शब्द तो बहुत ख़ास होते ही थे लेकिन शायरी कहने का उनका अंदाज़ भी बेहद ख़ास था। एक एक शेयर को वह बहुत ही सलीके से कहते। एक नहीं कई कई अंदाज़ में कहते। इतने ज्यादाबहुत से अलग अलग अंदाज़ कि जिसे शायरी की पूरी समझ न भी आती हो उसे भी उनके अंदाज़ से उनका शेयर समझ आता।  न सिर्फ समझ आता बल्कि गहराई से दिल और दिमाग में उत्तर जाता। ऐसे थे हमारे राहत इंदौरी साहिब।  उनकी समृति में एक विशेष आयोजन हो रहा है। 

राहत साहिब के बेटे जनाब फैसल राहत साहिब ने कहा है इसे मेरा परसनल मैसेज समझें। 

इस मैसेज को मेरा पर्सनल इनविटेशन समझें, वक़्त की कमी के चलते अलग से फ़ोन नहीं कर पा रहा हूँ......

जश्न ए दास्तान 

*राहत साहब की याद में*

एक अनोखा मुशायरा आपका इंतज़ार कर रहा है, ज़रूर तशरीफ़ लाएं.....

13 अगस्त 2022, शाम 05:30 बजे से 

लाभ मंडपम ऑडिटोरियम, अभय प्रशाल के पास, इंदौर

शुक्रिया -

फैसल राहत 

■ Faisal Rahat s/o Dr. Rahat Indori

अब चलते चलते राहत साहिब के अंदाज़ का एक शेयर भी--

हम अपनी जान की दुश्मन को अपनी जान कहते हैं 

मोहब्बत की इसी मिट्टी को हिन्दुस्तान कहते हैं

जो दुनिया में सुनाई दे उसे कहते हैं ख़ामोशी

जो आँखों में दिखाई दे उसे तूफान कहते हैं

                                           – राहत इंदौरी

Wednesday, 22 June 2022

लिख न सके यदि अपने युग को, समझो तुम फ़र्ज़ी लिखते हो।

 किसकी जय गाथा लिखनी थी, सोचो, तुम किसकी लिखते हो! 

रायबरेली के रहने वाले जनाब जय चक्रवर्ती ने बहुत कुछ लिखा है। बहुत ही लोकप्रिय शायर हैं। दोहे भी कमाल के हैं और ग़ज़लें भी। हर रचना एक संदेश देती है। हर रचना जगाती है। आंदोलित भी करती है। खरड़ मोहाली में रहनेवाले शायरों ने व्टसप पर एक ग्रुप बना रखा है वेद दीवाना फैन क्लब। इस ग्रुप में तकरीबन हर पोस्ट में खूब सूरत शायरी होती है। वक्त की बात करती हुई। जनता की बात करती हुई। सत्ता की चालों को बेनकाब करती हुई। इस बार इसी ग्रुप में सामने आई जय चक्रवर्ती साहिब की एक ख़ास ग़ज़ल जिसमें सवाल किए गए हैं है कलमकारों।  इसे पोस्ट किया इस ग्रुप में जनाब शिव शरण बंधु साहिब ने 21 जून 2022 की रात्रि को 07:51 पर। शिव साहिब से सम्पर्क किया जा सकता है उनके मोबाईल नंबर पर +91 94151 66683

जय चक्रवर्ती साहिब की ग़ज़ल 

लिखने भर को ही लिखते हो,

या फिर कुछ सच भी लिखते हो?


'ना' को 'ना' लिखना आता है,

अथवा केवल 'जी' लिखते हो?


लिख न सके यदि अपने युग को,

समझो तुम फ़र्ज़ी लिखते हो। 


क्यों लिखते हो, पहले सोचो,

फिर लिक्खो जो भी लिखते हो। 


लिक्खो औरों की भी पीड़ा,

क्यों केवल अपनी लिखते हो?


जैसा लिखते, दिखते हो क्या,

या यूँ ही खाली लिखते हो?


किसकी जय गाथा लिखनी थी,

सोचो, तुम किसकी लिखते हो!

@जय चक्रवर्ती  

वेद दीवाना फैन क्लब से साभार

Saturday, 4 September 2021

मुनादी//धर्मवीर भारती की यादगारी ऐतिहासिक रचना

 इस कविता ने उस वक्त का सच सामने रखा था 


खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का

हुकुम शहर कोतवाल का

हर खासो-आम को आगह किया जाता है

कि खबरदार रहें

और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से

कुंडी चढा़कर बन्द कर लें

गिरा लें खिड़कियों के परदे

और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें

क्योंकि

एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में

सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है


शहर का हर बशर वाकिफ है

कि पच्चीस साल से मुजिर है यह

कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए

कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए

कि मार खाते भले आदमी को

और असमत लुटती औरत को

और भूख से पेट दबाये ढाँचे को

और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को

बचाने की बेअदबी की जाये


जीप अगर बाश्शा की है तो

उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं ?

आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है !

बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले

अहसान फरामोशों ! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने

एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ

भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं

और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर

तुम पर छाँह किये रहते हैं

और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी

मोटर वालों की ओर लपकती हैं

कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;

तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर

भला और क्या हासिल होने वाला है ?


आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से

जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप

बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए

रात-रात जागते हैं;

और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए

मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक

छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं…

तोड़ दिये जाएँगे पैर

और फोड़ दी जाएँगी आँखें

अगर तुमने अपने पाँव चल कर

महल-सरा की चहारदीवारी फलाँग कर

अन्दर झाँकने की कोशिश की


क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी

जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे

काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया ?

वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ

गहराइयों में गाड़ दी है

कि आने वाली नस्लें उसे देखें और

हमारी जवाँमर्दी की दाद दें


अब पूछो कहाँ है वह सच जो

इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था ?

हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं

और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें

ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में

इस बुड्ढे की बकवास दब जाए


नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते

फेंक दी है खड़िया और स्लेट

इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह

फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं

और जिसका बच्चा परसों मारा गया

वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई

सड़क पर निकल आयी है।


ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है

पर जहाँ हो वहीं रहो

यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि

तुम फासले तय करो और

मंजिल तक पहुँचो


इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे

नावें मँझधार में रोक दी जाएँगी

बैलगाड़ियाँ सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएँगी

ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा

सब अपनी-अपनी जगह ठप

क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है

और उसके लिए जरूरी है कि जो जहाँ है

वहीं ठप कर दिया जाए


बेताब मत हो

तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है

बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से

तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए

बाश्शा के खास हुक्म से

उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा

दर्शन करो !

वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी

बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी

ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा

नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा

और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा

लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में

और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो

ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से

बहा, वह पुँछ जाए

बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं

                              --धर्मवीर भारती  

देश में लोकनायक जयप्रकाश नारायण जनता के परिनिधि बन कर ु भरे थे सत्ता के खिलाफ। उस दौर की याद दिलाती यह कविता "मुनादी" आज भी बहुत कुछ कह रही है। हालात और भी नाज़ुक होते जा रहे हैं। ऐसे में यह रचना कालजयी साबित हो रही है। देश भर में एक हवा पैदा हो गई थी लोकनायक जे पी के पीछे पूरी जनता चल पड़ी थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण जब घर से निकले तो फिर एक बविषाल काफिला बन गया। वह लुधियाना भी आए थे। उनकी रैलियों की कवरेज अंग्रेजी मीडिया ने बहुत नदे पैमाने पर की थी।  उनके खिलाफ सत्ता के रुख को डा. धर्मवीर भारती की यह प्रसिद्ध काव्य रचना किसी दस्तावेज़ी की तरह संभालती हुई लगातार आगे लेजा रही है। मुनादी कहते ही डी.धर्मवीर भर्ती यद् आते हैं पर साथ ही याद आते हैं जयप्रकाश नारायण और उनका आंदोलन। जे पी साहिब के उस नाज़ुक दौर से चलती हुई यह बात बहुत कुछ याद दिलाती है और किसान आंदोलन तक इस काव्य रचना को एक बार फिर प्रासंगिक क्र देती है। इस पर विस्तृत चर्चा जल्द ही की जाएगी किसी अलग पोस्ट में फ़िलहाल इतना ही कि भारती जी की यह रचना आज भी अमर है। आज भी प्रासंगिक है। यह आज भी बहुत कुछ कह रही है। -सम्पादक:साहित्य स्क्रीन