Tuesday 27th May 2023 at 5:45 PM
उनकी शायरी ज़िंदगी की कठिनइयों से हमेशां रूबरू रही
साहित्य की दुनिया से: 30 मई 2023: (मीडिया लिंक डेस्क//साहित्य स्क्रीन)::
जब आखिरी वक्त की घडियां नज़दीक आने को हुईं तो वह उस समय भी शायरी के इश्क में थे। मई, 2003 में नूर साहब एक मुशायरे में शामिल होने के लिए लखनऊ से गाजियाबाद जा रहे थे। जोश और उत्साह हमेशां उनके जीवन में बहुत गहरे मित्र की तरह साथ रहा। उस दिन भी उनके तन मन का माहौल भी कुछ ऐसा ही था। गंभीरता और जोश बहुत खूबसूरत स्वभाव था।
सफ़र के लिए उन्हें उस दिन भी ऊपर वाली सीट ही मिली थी। ऊपर की सीट का एक फायदा रहता है कि नीचे वाला कोलाहल दिमाग और शायरी के लिए आवश्यक एकाग्नरता को कभी भंग नहीं करता। हालांकि उतरने और चढने में होने वाले कष्ट के कारण ज़्यादातर लोग ऊपर की सीट को पसंद भी नहीं करते। वृद्ध उम्र में तो और भी ध्यान रखना पड़ता है। लेकिन नूर साहिब को एकाग्रता के कारण ऊपर वाली सीट पसंद भी थी। हमेशा इसे प्राथमिकता दिया करते। उस दिन तो यह सब बहाना ही बन गया।
आखिरी सफ़र बनने वाली उस ट्रेन में ऊपर की सीट से नीचे उतरते समय गिर जाने से उनके पेट में चोट आ गई। लेकिन उन्होंने चोट की परवाह न करते हुए अगले दिन मुशायरे में भी शिरकत की। पहले की तरह बातें भी की। किसी को भी अनहोनी का अंदेशा तक नहीं था।
उन्हें रूटीन में देख कर उस दिन तो बात आई गई हो गई लेकिन मुशायरे के अगले दिन 30 मई को नूर साहब सभी को छोड़कर अनंत यात्रा पर चले गए। उनका अंतिम संस्कार भी गाजियाबाद में ही किया गया। उनका जाना देह का नत तो था लेकिन उनकी शायरी ने एक नया सफ़र शुरू किया। यह शायरी तेज़ी से लोगों के दिलों तक पहुंचने लगी। ज़िंदगी की मुश्किलों का बेबाकी से बखान करती शायरी आज भी लोगों की जुबां पर है। यह सब उनकी साहित्य साधना का ही परिणाम है। इसी साधना में छिपे हैं उनके ख़ास गुण भी।
उल्लेखनीय है कि ज़मीन से जुड़े हुए जानेमाने शायर जनाब कृष्णबिहारी नूर की साहित्य साधना भी कमाल की रही। बिना किसी का अहसान लिए, बिना किसे से गुजारिशें किए, बिना किसी के आगे सिर झुकाए इन्दगी के रंगों को देखते रहे जनाब नूर साहिब। सिर्फ देखते उन अनुभूतियों की दिल और दिमाग में सहेजते रहे। योग साधना और तंत्र साधना में साधक बहुत क्रियाओं और बेहद कठिन आसनों के अभ्यास से सहजता की स्थिति को उपलब्ध होते हैं। इस सहज अवस्था में पहुँचने के बाद वे अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति भी देते हैं। यह अनुभूतियाँ शरीर और दुनिया में रहते हुए भी इनसे अलग होने का अहसास भी करवाती हैं।
जब वह कहते हैं:
ज़िंदगी अब बता किधर जाएं? ज़हर बाजार में मिला नहीं!
हो सकता है ज़िंदगी के आनंद, सुख सुवधा, अमीरी और विकास के दावे करने वाले अपनी जगह सही हों शायद लेकिन नूर साहिब तो ुकि बात करते हैं जो बहु संख्या में हैं और ज़िंदगी में दुःख, सर्द और गम का विष पी रहे हैं। नूर साहिब उस ज़िंदगी बात करते हुए कहते हैं:
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं! और क्या जुर्म है, पता ही
तो आजकल के दौर की ज़िंदगी की सभी मुश्किलों की तरफ बहुत ही सलीके से इशारा कर जाते हैं। जीना भी कठिन है और मरना भी गया--कितनी गहन मजबूरी है! उनकी शायरी पढ़ते जा सुनते हुए इस बात का अहसास बहुत बार होता है।
उनका इस दुनिया में जन्म 29 अगस्त 1954 को पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले की बांसगाँव तहसील (अब खजनी) अन्तर्गत ग्राम कुण्डाभरथ में हुआ। लगता है इस जन्म से पहले वह निश्चित ही किसी और दुनिया में भी रहे होंगे। उनकी शैरी पढ़ते हुए अहसास होता है कि उनकी शिक्षा की औपचारिकता भी पूरी शिद्दत से। कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम. ए. किया। सन 1968-69 से लेखन की शुरुआत हुई। पहली कहानी सन 1071में प्रकाशित हुई और उनका नाम कहानीकारों में भी उभर कर सामने आया। तबसे सैकड़ों रचनाएँ हिन्दुस्तान के प्रमुख समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशितहोती रहीं। यूट्यूब पर उनके मुशायरे भी मिल जाएंगे। अनेक प्रकार की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं के सदस्य और इमारात में हिन्दी के विकास में संलग्न रहे। संप्रति संयुक्त अरब इमारात के अबूधाबी नगर में अध्यापन के व्यवसाय में हैं। उनकी रचनाएं आज भी बहुत से लोगों के दिलों में हैं। उनकी शायरी सीधा दिल में उतरती है। इसके साथ ही ज़िंदगी के रूबरू भी करवाती है।
उनकी प्रकशित कृतियों में कुछ नाम आज भी विशेष हैं:
कहानी संग्रहों में हैं : दो औरतें, पूरी हक़ीकत पूरा फ़साना, नातूर।
एकांकी नाटक में हैं: यह बहस जारी रहेगी, एक दिन ऐसा होगा, गांधी के देश में
नाटक की दुनिया में है: संगठन के टुकड़े
कविता संग्रह में: मेरे मुक्तक : मेरे गीत, मेरे गीत तुम्हारे हैं, मेरी लम्बी कविताएँ,
उपन्यास: रेखा उर्फ नौलखिया, पथराई आँखों वाला यात्री, पारदर्शियाँ।
यात्रा वृतांत: सागर के इस पार से उस पार से।
गौरतलब है कि "दो औरतें" कहानी का नेशनल स्कूल ऑफ ड्रॉमा दिल्ली द्वारा श्री देवेंन्द्र राज अंकुर के निर्देशन में सन 1996 में जो मंचन हुआ वह बेहद लोकप्रिय हुआ। अखबार और रेडियो की दुनिया से संबद्ध रहने के बाद सत्रह वर्षों से भी अधिक समय तक अध्यापन से भी जुड़े रहे। इसे इस रूप में भी बेहद पसंद किया गया।
कृष्ण बिहारी नूर साहिब के बहुत सी शायरी विभिन्न वेबसाईट पर भी देखि जा सकती है। उनके लिए अलग से भी एक समर्पित वेवसाईट बनाने के प्रयास चले थे लेकिन इनके बारे में ज़्यादा पता नहीं चल सका। आखिर में एक बात और कि वह आखिरी सांस तक शायरी और मुशायरे के लिए समर्पित रहे। ऐसे ही हुआ करते हैं कलम के सिपाही।
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